JAIKICHAND SINGH BIOGRAPHY AND SUCESS IN HINDI 2020

JAIKICHAND SINGH BIOGRAPHY AND SUCESS IN HINDI 2020




घर के हालात सुधर सकें। देवेंद्र का परिवार राजस्थान के चूरू जिले के एक छोटे से गांव में रहता था। देवेंद्र जब पांच साल के हुए, तो पिताजी ने गांव के सरकारी स्कूल में दाखिला करा दिया। मां को बेटे की मासूम शरारतों पर खूब प्यार उमड़ता, 


मगर यह फिक्र भी लगी रहती कि कहीं इसे चोट न लग जाए। स्कूल से लौटते समय अक्सर देवेंद्र पेड़ पर चढ़ जाते थे। तब वह आठ साल के थे। 

पेड़ पर चढ़ते वक्त लगा बिजली का करंट 


एक दिन शाम को स्कूल से लौटते वक्त सड़क किनारे पेड़ पर चढ़ने की कोशिश कर रहे थे कि अचानक बाएं हाथ में तेज झनझनाहट महसूस हुई। पेड़ के आस-पास मौजूद बच्चों को उनकी तेज चीख सुनाई दी। लोगों ने उन्हें पेड़ से नीचे गिरते देखा। 


गांव वाले भागकर देवेंद्र के घर पहुंचे और उनकी मां को बताया। यह सुनकर मां दौड़कर वहां पहुंचीं। बेहोशी की हालत में उन्हें अस्पताल पहुंचाया गया। डॉक्टर ने बताया कि इसे बिजली का करंट लगा है। होश आया, तो सामने मां खड़ी थीं। 


उन्होंने आंसू पोंछते हुए कहा, तुम्हें बिजली का करंट लगा है। पर चिंता मत करो, अब तुम ठीक हो। 

काटना पड़ा हाथ 

दरअसल देवेंद्र जिस पेड़ पर चढ़े थे, उसकी टहनियों के बीच से 11,000 वोल्ट का बिजली का तार गुजर रहा था। धोखे से बायां हाथ तार पर पड़ा और पूरा हाथ झुलस गया। 


देवेंद्र ने देखा कि उनके पूरे हाथ पर पट्टी बंधी है। हाथ उठाने की कोशिश की, तो उसमें कोई हलचल नहीं हुई। लगा, जैसे हाथ में जान ही न हो। वह बार-बार मां से पूछते रहे- मेरा हाथ कब ठीक होगा? सब चुप थे। किसी के पास उनके सवाल का जवाब नहीं था। 


घरवाले डॉक्टर से मिन्नतें कर रहे थे। मां घर बेचकर भी बेटे का इलाज कराने को तैयार थीं। कई दिनों की कोशिश के बाद डॉक्टर ने कह दिया कि इसका हाथ अब काटना पड़ेगा, नहीं तो जहर पूरे शरीर में फैल जाएगा। यह सुनते ही मां के होश उड़ गए। बेटे की जिंदगी का सवाल था, इसलिए डॉक्टर को ऑपरेशन की इजाजत दे दी। पिता परेशान थे।


 तमाम सवाल थे उनके सामने। क्या अब बेटा अपाहिज बनकर जिएगा? क्या होगा इसका? पढ़ाई कैसे करेगा?

घर से निकलना किया बंद 


 देवेंद्र अस्पताल से डिस्चार्ज होकर घर पहुंचे। अब उनका एक हाथ कट चुका था।वह बताते हैं- ऑपरेशन के बाद पहली बार घर से निकला, तो बड़ा अजीब लगा। सब मेरी ही तरफ देख रहे थे। मुङो लगा, जैसे वे मेरा कटा हुआ हाथ देखकर हंस रहे हैं। 


मैंने घर से निकलना बंद कर दिया। मां बेटे की मनोदशा समझ रही थीं। बड़ा बुरा लगता था, जब लोग देवेंद्र पर दया दिखाते या कोई तंज कसते।

पिता ने  पढ़ाई के साथ-साथ खेल के लिए  किया प्रेरित 

 मां हर पल उनके संग रहती थीं। उनकी हर छोटी-बड़ी जरूरत का ख्याल रखतीं। कुछ हफ्ते बाद उन्हें दोबारा स्कूल भेजने की तैयारी शुरू हो गई। 


मां ने स्कूल बैग तैयार कर दिया। लेकिन देवेंद्र को यकीन ही नहीं हो पा रहा था कि वह पहले की तरह दोबारा स्कूल जा पाएंगे।पिता ने बेटे को पढ़ाई के साथ-साथ खेल के लिए प्रेरित किया। वह दोबारा स्कूल जाने लगे।

मिल्खा सिंह बने प्रेरणा स्रोत 


 देवेंद्र बताते हैं- उन दिनों मैंने धावक मिल्खा सिंह के किस्से सुने। किसी ने बताया कि मिल्खा के पास दौड़ने के लिए जूते तक नहीं थे,
 

फिर भी उन्होंने कई मेडल जीते। वह मेरे रोल मॉडल बन गए। मैंने खुद से कहा कि मिल्खा जीत 
सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं?




मेरी मां सड़क किनारे चाय बेचा करती थीं। उनका एक ही सपना था कि अपनी खुद की दुकान हो। हालात सुधरते ही मैंने बाजार में


 उनके लिए एक स्टॉल खरीदा। हम गरीब थे, मगर मां ने मेरे लिए हमेशा बड़ा सपना देखा। खुशी है कि मैं उनका सपना पूरा कर पाया।


मणिपुर की राजधानी इंफाल से करीब दस किलोमीटर दूर छोटा सा गांव है कीकोल। जैकीचंद तब पांच साल के थे, गांव से लगी कच्ची सड़क से सेना की बख्तरबंद 


गाड़ियों का आना-जाना आम बात थी। गाड़ियों में सवार सैनिकों को बंदूक थामे देख जैकी के मन में अक्सर यह ख्याल आता कि एक दिन मैं भी सैनिक बनकर ऐसी गाड़ियों में चलूंगा।

नहीं थे हालात  अच्छे


 परिवार के हालात अच्छे नहीं थे। पिता किसान थे। दूसरों के खेत में काम कर किसी तरह गुजारा चलाते थे। उनकी कमाई काफी नहीं थी। साल में कई महीने उनके पास काम नहीं होता था। लिहाजा मां गांव में खेल-मैदान के पास चाय बेचने लगीं। 

चाय की दुकान चलाकर बेटे को स्कूल भेजा 


मां खुद कभी स्कूल नहीं गईं, लेकिन बेटे को लेकर उन्होंने बड़े सपने देख रखे थे। वह जानती थीं कि उनके सपनों की मंजिल का दरवाजा स्कूल से होकर गुजरता था। इसलिए तमाम मुश्किलों की परवाह किए बिना बेटे को स्कूल में भर्ती करा दिया। 

जैकी भी करते थे माँ की मदद 

जैकीचंद बताते हैं, मां सुबह चार बजे घर से निकल जाती थीं और रात आठ बजे लौटती थीं। वह बहुत मेहनत करती थीं। स्कूल से छूटते ही मैं उनकी दुकान पर पहुंच जाता था, 


उनकी मदद करने के लिए। मां की दुकान में तमाम युवा खिलाड़ी चाय पीने आया करते थे। उन्हें देखते ही नन्हे जैकी लपककर उन्हें चाय पहुंचाते और खुशी-खुशी उनके जूठे कप धोते।

मौका मिलते ही फुटबॉल खेलने चले जाते थे  


 इस दौरान उनकी निगाहें खिलाड़ियों की फुटबॉल पर टिकी रहतीं। बच्चे की उत्सुकता देखकर कई बार खिलाड़ी उन्हें कुछ देर के लिए अपनी गेंद दे देते खेलने के लिए। जैकी को बड़ा मजा आता। जब भी मौका मिलता, वह मैदान में पहुंच जाते। 


खिलाड़ियों को फुटबॉल पर किक मारते हुए देखना बड़ा सुखद था। सभी खिलाड़ी और कोच जानते थे कि वह चाय बेचने वाली के बेटे हैं, इसलिए किसी ने कभी उन्हें मैदान के अंदर आने से नहीं रोका। लंच के दौरान या शाम को खेल खत्म होने के बाद मौका मिलते ही जैकी फुटबॉल खेलने लगते। अब वह आठवीं कक्षा पास कर चुके थे।

फूटबाल खेलने की ललक जगी 

 यह बात 2004 की है। मन में आया कि क्यों न मैं भी फुटबॉल की ट्रेनिंग लूं? फिर किसी ने बताया कि कोच फ्री में नहीं सिखाते। फीस देनी पड़ती है। मन छोटा हो गया। कहां से लाऊंगा फीस? एक दिन फुटबॉल कोच उनकी दुकान पर चाय पी रहे थे। 


जैकी ने हिचकते हुए कहा, मैं फुटबॉल खेलना चाहता हूं। कोच महोदय ने शिलांग स्थित आर्मी ब्यॉज एकेडमी जाने की सलाह दी। उन्होंने तुरंत तय कर लिया कि शिलांग जाऊंगा। 

पांच साल तक एकेडमी में रहे

जैकी बताते हैं, मुझे  शिलांग जाना था। जब पिताजी ने मुझे बस में बिठाया, तो मैं बहुत रोया। समझ में नहीं आ रहा था कि मां से दूर कैसे रह पाऊंगा? 


पर मां खुश थीं, क्योंकि उन्हें यकीन था कि उनका सपना सच होगा।जैकी पांच साल तक एकेडमी में रहे। साल 2009 में रॉयल वा¨हगदोह एफसी के लिए उनका चयन हुआ। इसके बाद हालात सुधरने लगे। वह कई साल तक इस टीम का हिस्सा रहे और क्लब ने 


उनकी बदौलत कई यादगार जीत हासिल कीं। इसके बाद उन्हें पीछे मुड़कर देखने की नौबत नहीं आई। 

हालत


 सुधरने पर चाय की दुकान बंद करवाई 

जैकीचंद बताते हैं, तब मुझे खेल के लिए 20 हजार रुपये महीना मिलते थे। इससे परिवार की काफी मदद हो जाती थी। हालांकि इस पैसे का काफी 


हिस्सा मेरे खान-पान व आने-जाने पर खर्च होता था। साल 2014 में वह देश की पेशेवर फुटबॉल स्पर्धा आई-लीग का हिस्सा बने। इसके बाद तो उन्होंने चाय की दुकान बंद करवा दी और मां को घर में आराम करने को कहा। अब उनकी कमाई परिवार की जरूरतें पूरी करने के लिए काफी थी।

सीनियर नेशनल फुटबॉल टीम के लिए खेलने का मिला मौका 


 अगले साल यानी 2015 में उन्हें आई-लीग के पहले टूर्नामेंट में शानदार प्रदर्शन के लिए ‘प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट’ घोषित किया गया। इनाम में दो लाख रुपये मिले। 


इसके बाद सीनियर नेशनल फुटबॉल टीम के लिए खेलने का मौका मिला। यह उनके जीवन का अहम पड़ाव था।

ऋतिक ने  कहा जैकी  रॉकेट की तरह उड़ता है 





जैकीचंद बताते हैं, यह बात 2015 की है। अगले दिन आईएसएल के खिलाड़ियों की नीलामी होनी थी। उस रात मैं सो नहीं पाया। 


समझ में नहीं आ रहा था कि कोई क्लब मुझे  अपनी टीम में शामिल करेगा या नहीं? अगले दिन बॉलीवुड अभिनेता ऋतिक रोशन के सह स्वामित्व वाली पुणो सिटी एफसी ने उन्हें 45 लाख रुपये में साइन किया। नीलामी के बाद ऋतिक ने उनकी 


तारीफ करते हुए कहा था, जैकी बेहतरीन खिलाड़ी है। उसके अंदर बड़ी ऊर्जा है। वह रॉकेट की तरह उड़ता है।

आईएसएल ने 55 लाख रुपये में किया  साइन


जल्द ही जैकीचंद फुटबॉल की दुनिया में बड़ा नाम बन गए। इस साल वह केरल ब्लास्र्ट्स की तरफ से खेलेंगे। इसी सप्ताह आईएसएल ने 55 

लाख रुपये में साइन किया। अब उनका एक ही सपना है, माता-पिता को अच्छी जिंदगी देना, ताकि वह सम्मान से जी सकें। 

 मां को खुश देख दिल को बड़ा सुकून मिलता है

उन्होंने पिता को हमेशा दूसरों के खेत में काम करते देखा। कई बार उन्हें काम की तलाश में भटकते हुए देख उन्हें बुरा लगता था। 


लिहाजा हालात सुधरते ही उन्होंने गांव के पास जमीन खरीदी, ताकि पिताजी अपने खेत में फसल उगा सकें। जैकी कहते हैं, मां सड़क किनारे चाय बेचा करती थीं। 

मैं चाहता था कि उनकी अपनी दुकान हो। इसलिए इंफाल के ख्वारामबादा बाजार में उनके लिए स्टॉल खरीदा। मां को खुश देख दिल को बड़ा सुकून मिलता है।




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