GOPAL SINGH NEPALI BIOGRAPHY IN HINDI 2020
गोपाल सिंह नेपाली की काव्य प्रतिभा बचपन में ही दिखाई देने लगी थी। एक बार एक दुकानदार ने बच्चा समझकर उन्हें पुराना कार्बन दे दिया जिस पर उन्होंने वह कार्बन लौटाते हुए दुकानदार से
युवावस्था में नेपालीजी के गीतों की लोकप्रियता से प्रभावित होकर उन्हें आदर के साथ कवि सम्मेलनों में बुलाया जाने लगा। उस दौरान एक कवि सम्मेलन में राष्ट्रकवि रामधारी
क्या दरस-परस की बात यहां, जहां पत्थर में भगवान है
यह मेरा हिन्दुस्तान है, यह मेरा हिन्दुस्तान है...
नेपालीजी के गीतों की उस दौर में धूम मची हुई थी लेकिन उनकी माली हालत खराब थी। वे चाहते तो नेपाल में उनके लिए सम्मानजनक व्यवस्था हो सकती थी,
कलम की स्वाधीनता के लिए आजीवन संघर्षरत रहे 'गीतों के राजकुमार'
गोपाल सिंह नेपाली लहरों की धारा के विपरीत चलकर हिन्दी साहित्य, पत्रकारिता और फिल्म उद्योग में ऊंचा स्थान हासिल करने वाले छायावादोत्तर काल के विशिष्ट कवि और गीतकार थे।साहित्यिक कविताओं,
जन कविताओं के साथ-साथ हिन्दी फिल्मों के लिए भी इन्होने 400 से अधिक गीत लिखे।
गोपाल सिंह नेपाली का जन्म 11 अगस्त 1911 को बेतिया, पश्चिमी चम्पारन (बिहार) में हुआ था। उनका मूल नाम गोपाल बहादुर सिंह है। नेपाली प्रवेशिका तक शिक्षित थे।
बचपन से ही थे कवी
कहा- 'इसके लिए माफ कीजिएगा गोपाल पर, सड़ियल दिया है आपने कार्बन निकालकर'। उनकी इस कविता को सुनकर दुकानदार काफी शर्मिंदा हुआ और उसने उन्हें नया कार्बन निकालकर दे दिया।
4 हिंदी पत्रिकाओ का किया संपादन
साहित्य की लगभग सभी विधाओं में पारंगत नेपाली की पहली कविता 'भारत गगन के जगमग सितारे' 1930 में रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा संपादित बाल पत्रिका में
प्रकाशित हुई थी। पत्रकार के रूप में उन्होंने कम से कम 4 हिन्दी पत्रिकाओं- रतलाम टाइम्स, चित्रपट, सुधा और योगी का संपादन किया।
रामधारी सिंह 'दिनकर भी उनके मुरीद हुए
सिंह 'दिनकर' उनके एक गीत को सुनकर गद्गनद् हो गए। वह गीत था-
सुनहरी सुबह नेपाल की, ढलती शाम बंगाल की
कर दे फीका रंग चुनरी का, दोपहरी नैनीताल की
सुनहरी सुबह नेपाल की, ढलती शाम बंगाल की
कर दे फीका रंग चुनरी का, दोपहरी नैनीताल की
क्या दरस-परस की बात यहां, जहां पत्थर में भगवान है
यह मेरा हिन्दुस्तान है, यह मेरा हिन्दुस्तान है...
पत्नी थी नेपाल के राजपुरोहित के परिवार से
क्योंकि उनकी पत्नी नेपाल के राजपुरोहित के परिवार से ताल्लुक रखती थीं लेकिन उन्होंने बेतिया में ही रहने का निश्चय किया।
वर्ष 1944 में मुंबई में उनकी मुलाकात फिल्मीस्तान के मालिक सेठ तुलाराम जालान से हुई जिन्होंने नेपाली को 200 रुपए प्रतिमाह पर गीतकार के रूप में 4 साल के लिए
'मजदूर' के लिए नेपाली ने लिखे गीत
वर्ष 1944 में मुंबई में उनकी मुलाकात फिल्मीस्तान के मालिक सेठ तुलाराम जालान से हुई जिन्होंने नेपाली को 200 रुपए प्रतिमाह पर गीतकार के रूप में 4 साल के लिए
अनुबंधित कर लिया। फिल्मीस्तान के बैनर तले बनी ऐतिहासिक फिल्म 'मजदूर' के लिए नेपाली ने सर्वप्रथम गीत लिखे।
फिल्मों में बतौर गीतकार नेपालीजी 1944 से 1962 तक गीत लेखन करते रहे। इस दौरान उन्होंने 60 से अधिक फिल्मों के लिए लगभग 400 से अधिक गीत लिखे। दिलचस्प बात यह है कि इनमें से अधिकतर गीतों की धुनें भी खुद उन्होंने बनाईं। नेपालीजी ने
60 से अधिक फिल्मों के लिए लिखे गीत
हिमालय फिल्म्स और नेपाली पिक्चर्स फिल्म कंपनी की स्थापना कर नजराना (1949), सनसनी (1951) और खुशबू (1955) जैसी कुछ फिल्मों का निर्माण भी किया।
नेपालीजी को जीते-जी वह सम्मान नहीं मिल सका जिसके वे हकदार थे। अपनी इस भावना को उन्होंने कविता में इस तरह उतारा था-
नेपालीजी को जीते-जी वह सम्मान नहीं मिल सका जिसके वे हकदार थे। अपनी इस भावना को उन्होंने कविता में इस तरह उतारा था-
अफसोस नहीं हमको जीवन में कुछ कर न सके
झोलियां किसी की भर न सके, संताप किसी का हर न सके
अपने प्रति सच्चा रहने का जीवनभर हमने यत्न किया
देखा-देखी हम जी न सके, देखा-देखी हम मर न सके।
17 अप्रैल 1963 को अपने जीवन के अंतिम कवि सम्मेलन से कविता पाठ करके लौटते समय बिहार के भागलपुर रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म
नंबर 2 पर गोपालसिंह नेपाली का अचानक निधन हो गया।
आखिरी तैयारियों में लगी हुई थी। जून का महीना था। बहुत गरमी भी थी। इसकी वजह से मेरे चेहरे पर शायद वैसे भाव नहीं आ रहे थे, जैसा गुरुजी चाहते थे। एक रोज उनके घर के बाहर एक मदारी आया। गुरुजी ने मुझे बुलाया। उन्होंने बंदरों की
तरफ दिखाते हुए पूछा कि ‘ये क्या है’? मैंने जवाब दिया- ‘बंदर-बंदरिया डांस कर रहे हैं गुरुजी। गुरुजी ने तत्तकली दिखाते हुए कहा- ‘शो मी द डिफरेंस बिटवीन मंकी ऐंड यू’। उनकी बात समझ में आ गई। यही वाकया मेरी जिंदगी को परिभाषित करने वाला रहा। दक्षिण भारत की नृत्य
विधाओं में गुरु छोटी मजबूत लकड़ी को बजाकर लय विन्यास सिखाते हैं। उसे तत्तकली कहा जाता है। शिष्य की अंगशुद्धि के लिए इससे पिटाई भी की जाती है।
झोलियां किसी की भर न सके, संताप किसी का हर न सके
अपने प्रति सच्चा रहने का जीवनभर हमने यत्न किया
देखा-देखी हम जी न सके, देखा-देखी हम मर न सके।
आखिरी तैयारियों में लगी हुई थी। जून का महीना था। बहुत गरमी भी थी। इसकी वजह से मेरे चेहरे पर शायद वैसे भाव नहीं आ रहे थे, जैसा गुरुजी चाहते थे। एक रोज उनके घर के बाहर एक मदारी आया। गुरुजी ने मुझे बुलाया। उन्होंने बंदरों की
तरफ दिखाते हुए पूछा कि ‘ये क्या है’? मैंने जवाब दिया- ‘बंदर-बंदरिया डांस कर रहे हैं गुरुजी। गुरुजी ने तत्तकली दिखाते हुए कहा- ‘शो मी द डिफरेंस बिटवीन मंकी ऐंड यू’। उनकी बात समझ में आ गई। यही वाकया मेरी जिंदगी को परिभाषित करने वाला रहा। दक्षिण भारत की नृत्य
विधाओं में गुरु छोटी मजबूत लकड़ी को बजाकर लय विन्यास सिखाते हैं। उसे तत्तकली कहा जाता है। शिष्य की अंगशुद्धि के लिए इससे पिटाई भी की जाती है।
घर से भी भागी
इसके बाद साल 1961 में उन दोनों के निर्देशन में राजभवन में मेरा ‘अरंग्रेत्रम’ हुआ। मेरे दादाजी मंगलदास पक्कासा उन दिनों मैसूर के राज्यपाल थे। देविका रानी, उनके पति चित्रकार रोरिक, मैसूर के महाराजा, दक्षिण के जाने-माने कला आलोचक और तमाम गुरुगणों ने एक आवाज में मेरी प्रशंसा की, जिससे मेरे भीतर इस मार्ग पर आगे बढ़ने का साहस बढ़ा, और
उत्कंठा बढ़ी। अगले दो साल में मैंने जर्मन साहित्य में मुंबई से स्नातक ऑनर्स पूरा किया। लेकिन नृत्य को लेकर मेरी जिद की वजह से घर पर लगभग सभी लोग मुझसे नाराज थे, खासकर मेरी मां। साल 1963 में मैंने एक दिन स्कॉलरशिप के पैसे लिए और बगैर किसी से कुछ बोले घर छोड़ दिया। कहीं से बस पकड़ी, कहीं से ट्रेन ली और सीधे बेंगलुरु पहुंच गई। जब गुरुजी के
घर पहुंची, तो वह फिल्म देखने गए थे। मैं बाहर ही बैठकर उनका इंतजार करती रही। वह वापस लौटे, तो उनकी गाड़ी की रोशनी मेरे ऊपर पड़ी। उन्होंने पूछा- वहां कौन है? मैंने
कहा- सोनल। फिर मैंने उन्हें पूरा किस्सा बताया। उन्होंने ही सबसे पहले मेरे घर पर जानकारी दी कि मैं सुरक्षित हूं। इसके बाद तो मैंने अपना जीवन ही डांस के नाम कर दिया।
युवा महोत्सव के विद्यार्थियों को भरतनाट्यम का प्रशिक्षण दे रही थी। मैं अपने मंगेतर जॉर्ज लैश्नर के साथ कार से जा रही थी। रात का वक्त था।
सड़क बारिश से भीगी हुई थी। हम जिस ‘बीटल फॉक्सवैगन’ में थे, उसमें डिक्की आगे होती थी और इंजन पीछे, यानी कार आगे से हल्की थी। उन दिनों सीट बेल्ट नहीं होती थी। रास्ता बिल्कुल सुनसान था। कार की रफ्तार सौ किलोमीटर प्रति घंटे के करीब रही होगी।
अचानक लैश्नर को कार के सामने एक हिरन दिखाई दिया। उन्होंने उसे बचाने के लिए पूरी ताकत से ब्रेक लगाई। हमारी कार ने तीन बार गुलाटियां खाई और पलट गई। मैं कार से बाहर करीब
12-15 फीट दूर जाकर गिरी। उस वक्त मैं हिलने-डुलने या चिल्लाने तक के लायक नहीं थी।
इसके बाद साल 1961 में उन दोनों के निर्देशन में राजभवन में मेरा ‘अरंग्रेत्रम’ हुआ। मेरे दादाजी मंगलदास पक्कासा उन दिनों मैसूर के राज्यपाल थे। देविका रानी, उनके पति चित्रकार रोरिक, मैसूर के महाराजा, दक्षिण के जाने-माने कला आलोचक और तमाम गुरुगणों ने एक आवाज में मेरी प्रशंसा की, जिससे मेरे भीतर इस मार्ग पर आगे बढ़ने का साहस बढ़ा, और
उत्कंठा बढ़ी। अगले दो साल में मैंने जर्मन साहित्य में मुंबई से स्नातक ऑनर्स पूरा किया। लेकिन नृत्य को लेकर मेरी जिद की वजह से घर पर लगभग सभी लोग मुझसे नाराज थे, खासकर मेरी मां। साल 1963 में मैंने एक दिन स्कॉलरशिप के पैसे लिए और बगैर किसी से कुछ बोले घर छोड़ दिया। कहीं से बस पकड़ी, कहीं से ट्रेन ली और सीधे बेंगलुरु पहुंच गई। जब गुरुजी के
घर पहुंची, तो वह फिल्म देखने गए थे। मैं बाहर ही बैठकर उनका इंतजार करती रही। वह वापस लौटे, तो उनकी गाड़ी की रोशनी मेरे ऊपर पड़ी। उन्होंने पूछा- वहां कौन है? मैंने
कहा- सोनल। फिर मैंने उन्हें पूरा किस्सा बताया। उन्होंने ही सबसे पहले मेरे घर पर जानकारी दी कि मैं सुरक्षित हूं। इसके बाद तो मैंने अपना जीवन ही डांस के नाम कर दिया।
युवा महोत्सव के विद्यार्थियों को भरतनाट्यम का प्रशिक्षण दे रही थी। मैं अपने मंगेतर जॉर्ज लैश्नर के साथ कार से जा रही थी। रात का वक्त था।
सड़क बारिश से भीगी हुई थी। हम जिस ‘बीटल फॉक्सवैगन’ में थे, उसमें डिक्की आगे होती थी और इंजन पीछे, यानी कार आगे से हल्की थी। उन दिनों सीट बेल्ट नहीं होती थी। रास्ता बिल्कुल सुनसान था। कार की रफ्तार सौ किलोमीटर प्रति घंटे के करीब रही होगी।
अचानक लैश्नर को कार के सामने एक हिरन दिखाई दिया। उन्होंने उसे बचाने के लिए पूरी ताकत से ब्रेक लगाई। हमारी कार ने तीन बार गुलाटियां खाई और पलट गई। मैं कार से बाहर करीब
12-15 फीट दूर जाकर गिरी। उस वक्त मैं हिलने-डुलने या चिल्लाने तक के लायक नहीं थी।
मेरी रीढ़ की हड्डी और चार पसलियां टूटी
कुछ देर बाद लोगों ने मेरे मुंह पर पानी छिड़का। मुझे बहुत ठंड लग रही थी। मैंने बुदबुदाते हुए कहा कि मुझे कुछ ओढ़ने के लिए चाहिए। इतनी देर में पुलिस आ गई। थोड़ी देर बाद एंबुलेंस आई। मेल नर्सेस ने उठाया। मुझे अस्पताल पहुंचाया गया।
वह म्यूनिसिपल अस्पताल था। सबसे पहले मुझे दर्द कम करने के लिए कुछ इंजेक्शन दिए गए और इसके बाद तुरंत एक्स-रे के लिए भेज दिया गया। मेरे एक्स-रे से पता चला कि चोट कितनी गंभीर थी। मेरी रीढ़ की हड्डी, गले के पास की हड्िडयां और चार पसलियां टूट चुकी थीं।
कुछ देर बाद लोगों ने मेरे मुंह पर पानी छिड़का। मुझे बहुत ठंड लग रही थी। मैंने बुदबुदाते हुए कहा कि मुझे कुछ ओढ़ने के लिए चाहिए। इतनी देर में पुलिस आ गई। थोड़ी देर बाद एंबुलेंस आई। मेल नर्सेस ने उठाया। मुझे अस्पताल पहुंचाया गया।
वह म्यूनिसिपल अस्पताल था। सबसे पहले मुझे दर्द कम करने के लिए कुछ इंजेक्शन दिए गए और इसके बाद तुरंत एक्स-रे के लिए भेज दिया गया। मेरे एक्स-रे से पता चला कि चोट कितनी गंभीर थी। मेरी रीढ़ की हड्डी, गले के पास की हड्िडयां और चार पसलियां टूट चुकी थीं।
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